
हाल ही में, केरल उच्च न्यायालय ने एक आदेश में कहा कि एक महिला को मोटर दुर्घटना में हुई चोटों के लिए मुआवजे से इस आधार पर वंचित नहीं किया जाना चाहिए कि वह एक गृहिणी है. एक दुर्घटना में रीढ़ की हड्डी में चोट लगने वाली एक महिला को 40 हजार रुपये के मुआवजे पर आपत्ति जताते हुए विरोधी पक्ष ने कहा कि चूंकि वह एक गृहिणी थी और उसकी कोई आय नहीं थी इसलिए उसे अधिक मुआवजा देने की जरूरत नहीं है. हाईकोर्ट ने इसे ‘अपमानजनक’ करार देते हुए आदेश दिया कि गृहिणियों के मुआवजे को कामकाजी महिलाओं के बराबर माना जाना चाहिए.
हाल के चुनावों के दौरान, राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में महिलाओं के ‘सशक्तिकरण’ के लिए “आय समर्थन” – मासिक भुगतान के विभिन्न रूपों का वादा किया गया था. इन वादों ने महिलाओं से जुड़े मुद्दे और लैंगिक असमानताओं पर एक बहस छेड़ दी है.
“अवैतनिक देखभाल” से तात्पर्य किसी व्यक्ति या किसी चीज़ के देख-रेख, स्वास्थ्य, और सुरक्षा के लिए किये जाने वाले कार्य हैं, जिसमें पारिश्रमिक नहीं मिलता. जैसे खाना पकाना, घर की साफ-सफाई से लेकर पानी और जलाऊ लकड़ी लाने या बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल! गृह कार्य में महिलाओं की दक्षता उन्हें ‘आर्थिक गतिविधियों’ से दूर कर रही है. देखभाल का काम करने वाली महिलाओं के पास अक्सर वैतनिक कार्य में शामिल होने या शैक्षिक और करियर के अवसरों का पीछा करने के लिए कम समय होता है, जिसके परिणामस्वरूप जीवन भर की कमाई कम हो सकती है और गरीबी का खतरा अधिक हो सकता है. इसके अतिरिक्त, देखभाल कार्य के लिए मान्यता और मुआवजे की कमी लैंगिक असमानताओं को कायम रख सकती है और पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को सुदृढ़ कर सकती है.
संयुक्त राष्ट्र संघ के नवीनतम उपलब्ध “सतत विकास लक्ष्य” के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया 2030 तक लैंगिक समानता हासिल करने से बहुत पीछे है. यु एन वीमेन और सामाजिक और आर्थिक मामलों के विभाग द्वारा “दी जेंडर स्नैपशॉट 2022” रिपोर्ट के अनुसार, विश्व स्तर पर 38 करोड़ से अधिक महिलाएं और लड़कियां अत्यधिक गरीबी में हैं जो प्रति दिन $1.90 या लगभग 165 रुपये से कम पर जीवन यापन कर रही हैं. 2020 में स्कूल और डे केयर बंद होने से महिलाओं के लिए विश्व स्तर पर अनुमानित 512 बिलियन अतिरिक्त घंटों की अवैतनिक चाइल्ड केयर हुई.
कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन का पुरुषों की तुलना में महिलाओं के रोजगार पर असमानुपातिक प्रभाव पड़ा है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का अनुमान है कि अवैतनिक देखभाल कार्य महिलाओं को कार्य बल में शामिल होने और बने रहने से रोकने वाली सबसे महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक है. गृह कार्यों को महिलाओं की जिम्मेदारी के रूप में देखा जाता है और इसलिए अवैतनिक देखभाल कार्य में लैंगिक असमानताएँ दुनिया भर में देखी जाती हैं. ओईसीडी डेवलपमेंट सेंटर के दिसंबर 2014 में प्रकाशित रिपोर्ट – ‘अनपेड केयर वर्क: द मिसिंग लिंक इन द एनालिसिस ऑफ जेंडर गैप्स इन लेबर आउटकम’ के अनुसार, दुनिया भर में, महिलाएं अवैतनिक देखभाल कार्य पर पुरुषों की तुलना में दो से दस गुना अधिक समय बिताती हैं.
“समय-उपयोग” सर्वेक्षण एक देश या क्षेत्र के भीतर विभिन्न गतिविधियों, जैसे कि भुगतान कार्य, शिक्षा, अवैतनिक कार्य और यहां तक कि अवकाश पर खर्च किए गए समय की मात्रा को मापने के लिए विश्व स्तर पर प्रमाणित हैं. भारत का पहला “समय-उपयोग” सर्वेक्षण, राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन द्वारा 2019 में किया गया. इसके अनुसार, भारतीय महिलाएं अपना 51 प्रतिशत समय अवैतनिक कार्यों में व्यतीत करती हैं. 2005 का ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम पहला राष्ट्रीय कानून है जिसने महिलाओं को पुरुषों के बराबर पारिश्रमिक दिया है. ग्रामीण भारतीय परिवारों में ईंधन के लिए लकड़ी इकठ्ठा करना, और गोबर के उपले बनाना महिलाओं की ही जिम्मेदारी है. प्रधानमंत्री मोदी की उज्ज्वला योजना ने इस स्थिति को बदलने में महती भूमिका निभाई है, पर फिर भी, ग्रामीण क्षेत्रों में खाना बनाना तो महिलाओं का ही काम है.
हमारे प्राचीन वेद पुराणों में एक नारी का समाज और परिवार के प्रति किए कार्यों को अमूल्य की संज्ञा दी गयी है. जब एक महिला अपने गर्भ से बच्चे को जन्म देती है तब यही बच्चा भविष्य में देश की आर्थिक प्रगति का ध्वजवाहक बनता है. जब एक महिला अपने बूढ़े सास ससुर की घर में देखभाल करती है तब उसका पति अपनी नौकरी या अपने व्यापार को समय दे पाता है. भारत में परिवार सामाजिक ढांचे का केंद्र रहा है और इसमें कोई संदेह नहीं की उस परिवार का केंद्र एक महिला होती है. पुरुष आर्थिक रूप से सक्षम तब बनता है जब एक महिला उसे घर के इस तथाकथित “अवैतनिक” कार्यों को कुशलतापूर्वक करती है.
देखभाल के काम के मूल्य और देखभाल करने वालों द्वारा समाज में किए जाने वाले योगदान को पहचानना महत्वपूर्ण है. देखभाल करने वालों का समर्थन करने वाली नीतियां, जैसे सवैतनिक माता-पिता की छुट्टी, लचीली कार्य व्यवस्था और सस्ती देखभाल, महिलाओं पर अवैतनिक देखभाल कार्य के बोझ को कम करने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने में मदद कर सकती हैं. घरेलू महिला कामगारों को श्रमिकों के रूप में पंजीकृत करने और उन्हें न्यूनतम मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा जैसे अधिकार प्रदान करने से सकारात्मक बदलाव होंगे. भारत की लाखों आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, नर्सिंग सहायक या आशा वर्कर्स स्वयंसेवक के रूप में काम करती हैं और उन्हें वेतन की जगह मानदेय दिया जाता है. बच्चों/ बुजुर्गों की देखभाल महिलाओं का सबसे ज्यादा समय लेता है. इसलिए, आंगनबाड़ी केंद्र निर्माण पर विशेष ध्यान देने के साथ बुजुर्गों की देखभाल करने की सुविधाएं बनाने में व्यावहारिक नीति बनाई जानी चाहियें.
संयुक्त राष्ट्र संघ के “वैश्विक सतत विकास लक्ष्यों” को 2030 तक हासिल करने में केवल सात वर्ष बाकी हैं और लैंगिक समानता में परिवर्तन के अधिकांश संकेतकों पर दुनिया पीछे है. समय आ गया है की हम “अवैतनिक देखभाल” को मान्यता प्रदान कर उसे श्रम बल में उचित स्थान दें ताकि महिलाओं के साथ साथ “देखभाल के कार्य” का सम्मान भी बढ़े और हम इसे कहीं भी अन्य कार्यों से कमतर नहीं आंकें.
उज्ज्वल वीरेंद्र दीपक
[email protected], लोक प्रशासन – कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यू यॉर्क
(ये लेखक के अपने विचार हैं)